आत्मकथ्य - डाॅ॰ शान्ति सुमन
अपनी रचना-प्रक्रिया पर कुछ कहने से पहले अपने बारे में एक-दो बातें कहना चाहती हूँ। मेरा मूल नाम शान्तिलता है । शांति मेरी फुआ का दिया हुआ नाम है । उनकी ससुराल में इस नाम की एक लड़की पढ़-लिरवकर मैट्रिक पास हुई थी । फुआ ने इस विश्वास से मेरा नाम शान्ति रख दिया था कि मैं भी पढ़-लिखकर बड़ी बनूँगी । सुमन परिवार का दिया हुआ नाम है । मैंने दोनों नामों को अपने लिए रख लिया । पर यह सच है कि शांति सुमन ने कभी कोई नौकरी नहीं की । शान्तिलता में मेरी माँ के नाम के साथ लगा हुआ शब्द 'लता' है । उनका नाम जीवनलता देवी था । मेरी शिक्षा इसी नाम से हुई । इसी नाम से मैं व्याख्याता, रीडर और प्रोफेसर बनी तथा इसी नाम से 2004 ई॰ में हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद से सेवामुक्त हुई ।
यह बहुत अर्थ नहीं रखता कि मेरा जन्म कब हुआ । अर्थ इसमें है कि अपने रचनात्मक जीवन में मैंने क्या किया । इसी से लगी हुई एक जिज्ञासा हो सकती है कि मैं रचनात्मक कैसे हुई । जीवन की शुरूआत से लेकर किशोरावस्था तक मैंने जैसा जीवन जिया, जैसा देखा, सुना और समझा उसी से मुझको रचना की प्रेरणा मिली । मैट्रिक पास करने तक जैसी मेरी रचनायें रहीं उनको स्वतःस्फूर्त्त कहें भी तो '60 के पहले ही मेरी स्वतःस्फूर्त्तता समाप्त हो गयी थी और सामाजिक सरोकार के संवेदनशील अनुभव मुझमें घर बनाने लगे थे । जो लोग मुझको या मेरे जैसे रचनाकार को नहीं जानते हैं, वे मेरी या उन सबकी रचनाओं को और रचनाओं के माध्यम से मुझको और उन सबको जानने लगते हैं कि उन रचनाओं में हमारी साँसों के दस्तावेज लिखे होते हैं, उन साँसों के दस्तावेज जिनको हमने समकाल की सामाजिक परिस्थितियों में जिया और हम जीवित रहे । इसलिये रचनायें हमारे जीवित होने के सबूत होती हैं । हम रचनायें इसलिये लिखते हैं कि अपने जिन्दा होने का सबूत दे सकें । समाज भी कैसे जीता है, उसके जीने में कितना 'जीवन' है इसको भी रचनायें ही कहती हैं । जीवन को कहने के लिए रचना से अधिक कोई और माध्यम प्रामाणिक नहीं होता । आप यह समझिये कि कहीं लिखा हुआ पढ़ा था कि अकबर के राज्य में घरों में ताले नहीं लगाये जाते थे । उन दिनों चोरियाँ नहीं होती थीं । सबको करने के लिए काम थे और कोई अभाव नहीं था, पर 'विनयपत्रिका' में तुलसीदास ने लिखा है कि उन दिनों वणिक को काम नहीं मिलता था, न सबको 'चाकरी' मिलती थी, यहाँ तक कि भिखारी को भीख नहीं मिलती थी । तुलसीदास ने किसी के दबाव में यह सब नहीं लिखा क्योंकि उन्होंने तो स्पष्ट कह दिया था कि 'तुलसी अब का होंहिहें नर के मनसबदार' । रचनाकार की यही अस्मिता, उसका यही स्वाभिमान उसकी पहचान है जो उसको समाज में अलग और ऊपर उठाती है।
2 / 3 / '79 को गीत पर एक वक्तव्य देते हुए मैंने कहा था कि गीत को मैं अपने से अलग नहीं मानती । ये शब्द, भाव, विन्यास कैसे और कहाँ से आते हैं यह तो केवल वही बता सकते हैं जो विवश करते हैं कुछ लिखने के लिये और इसमें संदेह नहीं कि जब वे आते हैं तो उसे बैठने के लिए जगह, तोड़ने के लिये तिनके और करने के लिये कुछ बातें मिल ही जाती हैं । यह रचनाकार का अपना एकांत है । उसकी अपनी इकाई है । सब कुछ व्यक्तिगत पर सामाजिक होता हुआ । जिस तरह पानी का कोई स्वरूप नहीं होता, वह जिसमें रखा जाता है, उसका स्वरूप ले लेता है, मेरी समझ से यही स्थिति अनुभूतियों का क्षणों के साथ है । यह व्यक्ति से समाज की ओर उन्मुख होनेवाली प्रक्रिया है । अर्थात् व्यक्तिपरक होकर भी सामाजिक ।
यह बात ठीक है कि आज की जिन्दगी बहुत कुछ गीतात्मक न होकर गद्यात्मक होती चली जा रही है । कुँवर नारायण के शब्दों में - 'वह चेहरा जो मेरे लिये चाँद हो सकता था, भीड़ हो गया है ।' लेकिन भीड़ से भी तो अलग होना ही पड़ता है । लाखों के शोर में कहीं कोई महीन स्वर होता है जो सब पर तैरता रहता है, वरना आदमी ऊबकर वहाँ से भाग खड़ा होता । सभी लोग नींद की गोलियाँ खाकर सो रहते । घरेलू परेशानियों के बीच मेरे लिए गीत एक बचाव का पक्ष भी रहा है - डूबते को तिनके का सहारा ।
अब जहाँ तक नवगीत का सवाल है - मैं अपनी ओर से कुछ भी दावा नहीं करती । परन्तु वैसे कुछ लोग सहज रूप से कही गई बातों को भी दावा मानकर अर्थान्तर कर देते हैं । हाँ, समय की नब्ज को मैंने समझने की भरसक कोशिश की है । यों जिस समय भी जो कुछ लिखा जाता है, वह उस समय के लिये देश, काल, परिस्थिति को देखते हुए नया होता है । अपने पिछले से अलग करने के लिये उसे एक नाम दे दिया जाता है, जैसे - छायावाद, प्रयोगवाद । आज का यह नव भी कुछ इसी प्रकार का है । आज का युवा रचनाकार पाँच के बाद छठा, सातवाँ पेबन्द लगाने में विश्वास नहीं करता, बल्कि वह यथास्थिति को खोलना चाहता है। वह देखना चाहता हैं कि संबंधों के प्याज में केवल छिलका ही छिलका है या उसके अंदर कोई ऐसी ठोस वस्तु है जिसके चलते वह कहीं-कहीं बजाय खुश करने, गुदगुदी के एक शाॅक (shock) देता हुआ सा लगता है ।
पूरा पढ़ें...