डाॅ॰ विश्वनाथ प्रसाद
मध्यवर्ग की हिस्सेदारी के गीत
शान्ति शुमन नवगीत की अकेली कवयित्री हैं। अभी तक 'ओ प्रतीक्षित' तथा 'परछाईं टूटती' नामक दो गीत-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इस हिस्सेदारी में यथार्थ का उत्पीड़न भी हैं और मुक्त क्षणों का उल्लास भी है। 'ओ प्रतीक्षित' में इन दोनों प्रकार के संवेदनाओं के जैसा निर्वाह है, वैसा 'परछाइं टूटती' में नहीं है। इसमें मुक्त क्षणों की भावुकता कहीं नये जीवन-संदर्भों में प्रगट हुई है और कही शाम या चाँदनी जैसे प्रकृति के उत्तेजक परिवेश में प्रकट हुई है। लेकिन शान्ति सुमन के भावाकुल मनोदशा को लोक-संदर्भ से बिम्बों का चयन,रंगों के संयोजन और प्रतीकों की सृष्टि करके नियंत्रित किया है। उनकी संचेतना मुक्त क्षण के निजी प्रसंगों को लोक-संवेदना और सौन्दर्य के चौखटे में मढ़ देती है। शान्ति सुमन के लोक-संदर्भों में मैथिल-परिवेश और सौन्दर्य-चेतना में रंगों की परख सर्वाधिक उल्लेखनीय है। 'ओ प्रतीक्षित' में समकालीन मध्यवर्ग की रिक्तता, तनाव, अकेलापन, उन्मुक्तता, बेपनाही, खीझ, उदासी, थकान, टूटन, बिखराव और निरुपाय विद्रोह के साथ उल्लास, उनमुक्तता और रूमानीपन के दायरे में सिमट जाने वाला क्षण का मुक्त आभोग भी है। ये सब नारी मन की प्रतीतियाँ हैं, इसलिए इनमें अहसास की गहराई की जगह आवेग की तीव्रता अधिक है। इनके बीच नारी की बेबस और बोझिल जिन्दगी उभरती है। 'परछाई टूटती' में व्यक्ति और समूह दोनों स्तरों पर समकालीन जीवन की बेचैनी है, लकिन यह भोगे हुए जीवन का एहसास नहीं, बल्कि मुहावरा है। शोर-शराबे की ऊब, बेरोजगारी का दर्द, भीड़ में खोये व्यक्ति की छटपटाहट, संवेदन-शून्यता, व्यर्थता का बोध, स्वप्न भंग जैसी बातें शान्ति सुमन की निजी जीवन का अहसास न होने के कारण कथन मात्र बनकर रह जाती है। प्रेम में प्रतीकों और उपमानों से प्रगट होती हुई विह्वलता ही शान्ति सुमन का अपना अहसास है। 'ओ प्रतीक्षित' के बिम्बों में रूप की समग्रता और अनुभूतिकी गहराई है तो 'परछाई टूटती' में लोक -जीवन की परंपराओं, वस्तु-चित्रों और निर्धनता का चित्रण है। शान्ति सुमन ने रंग-बोध के लिए बिम्बधर्मी विशेषणों का बहुत प्रयोग किया है। लेकिन शान्ति सुमन का गीत-फलक मुक्त क्षणों में नारी मन की तन्मयता, उल्लास और समर्पण को व्यक्त करने में जितना ओपदार है उतना अन्य संदर्भों में नहीं। यही कारण है कि एक राजनीतिक विचारधारा से प्रतिबद्ध होकर लिखे गये उनके बाद के जनगीतों में अन्तर्विरोध युक्त बिम्ब, बिखरा हुआ गीत-शिल्प और हठात् प्रयोग की प्रवृति दिखाई देती है।
('गीतायन' – पृष्ठ 20-21)