भारतभूषण
चिन्तित अनुभूति के विस्तार
एक बार वाराणसी के पास किसी छोटे से नगर में मंच पर शान्ति जी भी थीं । मैं प्रसन्न हुआ कि चलो जिसकी इतनी प्रशंसा सुनी है तो आज सुनें भी। शान्ति जी ने अपना लोकप्रिय गीत ही पढ़ा था - 'थाली उतनी की उतनी ही छोटी हो गई रोटी / कहती बूढ़ी दादी अपने गाँव की।' मैं इस गीत के सौन्दर्य और विस्तार-प्रसतुति पर सिहर उठा था। नवगीत का सुन्दरतम गीत मुझे लौटते में यात्रा भर में गुँजता रहा । मैं जैसे धन्य हो गया। इस गीत का सौन्दर्य थाली और रोटी में नही है - 'कहती बूढ़ी दादी' में है। छोटी उम्र की बेटी या बहू को रोटी, थाली के नाप का पता नहीं हुआ है। ये अनुभूति की चिन्ता और दुख उसे पता है जो 60-70 वर्ष से इसे दृष्टि से अनुभव कर रही है। मैं इस चिन्तित अनुभूति के विसतार पर निहाल हो गया। इसके बाद हर पत्रिका में मैं शान्ति सुमन को ढूँढ़ता रहा।