शान्ति सुमन : व्यक्ति और कृति : डाॅ. सुनन्दा सिंह
शान्ति सुमन सुप्रसिद्ध नवगीतकार एवं वरिष्ठ जनवादी गीतकारों में एक अपनी अलग पहचान वाली गीतकार हैं । समकालीन नवगीत एवं जनवादी स्त्री गीतकारों में इनका स्थान सर्वोच्च है । शान्ति सुमन ने गीत की इन दोनों धाराओं को उच्चस्तरीयता दी है । गीत की दुनिया में इनका अस्तित्व बहुत बड़ा है, पर ये मेरी/हमारी 'मैम' रही हैं । कॉलेज में प्रोफेसरों से 'मैम' कहकर ही हम बातें करती थीं, पर शान्ति सुमन जी को कभी यह सम्बोधन स्वीकार नहीं हुआ । वे कहती थीं - 'आपलोग मुझको दीदी ही कहिये' । इस शब्द में जितनी आत्मीयता और सम्मानजन्य लगाव है वह दूसरे सम्बोधन में नहीं । मैम शब्द की गलत आधुनिकता से हमारा व्यक्तित्व घटता है । यहाँ इसको ध्यान में नहीं रखा जाता कि आधुनिकता केवल शब्द और बाहरी आवरण में नहीं होती । आधुनिक अन्दर से हुआ जाता है, अपने संपूर्ण आंतरिक शिल्प से इसको व्यक्त किया जाता है । केवल पहनावे-ओढ़ावे नहीं, इसमें सामान्य व्यवहार से लेकर भाषा एवं लोकाचार की सारी सीमाएँ आती हैं ।पश्चिमी देशों में तो बच्चे 'क्रेच' में पलते हैं, माँ से उनकी अपेक्षाकृत कम देखा-सुनी होती है । इसलिये मॉम या मम्मी शब्द चल जाता है, पर हमारे घर में तो बच्चे माँ की ममता की छाँव में ही पलते हैं । इसलिये माँ जैसा कोई दूसरा आह्लादकारी, वात्सल्य से भीगा हुआ शब्द हो ही नहीं सकता । हाँ, कार्यालयों में राज-काज में मैम शब्द इसलिये चला हुआ है कि वहाँ की सारी व्यवस्था अंग्रेजियत में डूबी हुई है । जिस तरह कभी 'बाबू' शब्द प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया था, मैम सम्बोधन भी प्रतिष्ठा का पर्याय बन गया है । उन लोगों को मैम कह लीजिये जिनको यह शब्द अधिक गौरव देता है । मैं हिन्दी साहित्य पढ़ाती हूँ। इसलिये मुझको दीदी ही बनी रहने दीजिये । मुझको आदर से अधिक स्नेह और आत्मीयता में विश्वास है ।' इस तरह ये हमारे लिये दीदी ही बनी रहीं ।
अब तो मैं भी पचास के पास पहुंच रही हूँ। इतने लम्बे समय तक मैं गीतकार शान्ति सुमन के व्यक्तित्व की सहज गरिमा को देखने-सुनने का अनुभव संचित करती रही हूँ। महन्त दर्शनदास महिला कॉलेज के हिन्दी-विमाग में बहुत वर्षों के बाद ऐसी लोकप्रिय प्रोफेसर आई थीं । इनकी विद्वता और व्यवहार की सहजता से छात्रायें बहुत प्रभावित थीं । इनके वहाँ रहने तक कॉलेज के सारे सांस्कृतिक कार्यक्रम जिनमें कुछ तो बड़े ही भव्य और बिहार के किसी भी कॉलेज से अलग और ऊपर के कार्यक्रम हुए, शान्ति सुमन जी के संचालन और तैयारी की पूरी प्रक्रिया से ही संभव हुए । कलाकार छात्राएँ उनके स्नेह और मार्गदर्शन से इतनी उत्साहित होती थीं कि घंटों रिहर्सल करने के बाद उनको थकान का अनुभव नहीं होता था । शान्ति सुमन जी की बोलचाल से ही अपनापन झरता था । वे कहती थीं कि कभी हमलोग भी आपकी जगह होती थीं । आज हम यहाँ हैं तो आपलोग भी कुछ वर्षों में यहाँ पहुँचने ही वाली हैं । छात्राएँ जिनमें प्रथम वर्ष से लेकर आॅनर्स अंतिम वर्ष तक की होती थीं, शान्ति सुमन के शब्द उनमें नये विश्वास भर देते थे ।
बहुत वर्षों तक महाविद्यालय पत्रिका का प्रकाशन बन्द था । प्राचार्या के परामर्श से शान्ति सुमन जी ने पत्रिका प्रकाशन की नयी शुरूआत की । पत्रिका का नया नाम रखा - 'दर्शना' । उनके कुशल संपादन में उसके कई अंक प्रकाशित हुए । खोज-खोज कर उन्होंने नयी से नयी छात्रा की रचनाओं का संचयन किया । उनकी रचनाशीलता को प्रोत्साहन दिया । सारी रचनाओं की परिशुद्धि से लेकर प्रूफ देखने तक का कार्य किया और इस तरह महन्त दर्शनदास महिला महाविद्यालय की रचनात्मक छवि उजागर की और कॉलेज में साहित्यिक वातावरण को ऊर्जा दी ।
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